शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2008

ॐ नमः शिवाय ॐ विश्नाय नमः

इस पानी में अगर बहता ही चला जाता मेरा धर
इस शीतलता में अगर खोता ही चला जाता मेरा शीष
और मेरा मन
यूँ ही अगर यह नेत्र कभी खुल न पाते

और यूँ ही अगर आवाज़ इस आनंद में खो जाती
तो शायद में यूँ परेशान न रहता
यह हस्ती, यह बेचेनी न सहता
यह समां यूँ सहमा सहमा सा न रहता
और मैं अपनी पहचान की भूख के लिए
विचलित न रहता
वेह आराम की खोज इतनी लम्बी
क्यों नज़र आती है
मुझे अपनी मंजिल इक बिछारता आकाश
क्यों नज़र आती है
बलहीन को बल की भीख मांगने में
क्यों शर्म आती है
मुझे अपने अस्तित्व की पहचान उतारने में
क्यों शर्म आती है

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