सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

ॐ नमः शिवाय ॐ विश्णय नमः

समय से कैसा परिचय

अपरिचित रहने की कोशिश है

सुख से संसार को भरने के लिए

अपने भीतर सुख खोजने की कोशिश है

कोशिश है, आसमान छूने की नही

आसमान बनने की कोशिश है

कोशिश, कोशिश, कोशिश

कोशिशों से अपरिचित

इक ऐसा स्वरुप खोजने की कोशिश है

की फिर कभी कोशिश न करनी परे

की वहां पहुँचने की कोशिश है

की वहां पहुँचने की कोशिश है

ॐ नमः शिवाय ॐ विश्णय नमः

कुछ सोचा तो आखें भर आयी
ज़िन्दगी बेमतलब-सी समझ आयी
कुछ और सोचा तो मुसीबत सामने ही नज़र आयी
समझ लो ज़िन्दगी से बेहतर,
मौत नज़र आयी
इन् विचारों, आशाओं, की लुका-छुपी में
मुझे तेरी ज़रूरत नज़र आयी
अपनी आवाज़ में तेरी गूँज नज़र आयी
मेरी दिशा में रौशनी छिड़क
मेरे सफर में साथ चल
अपना साथ दे,
मेरे साथ चल
हे प्रभु, मुझे जाग्रति दे

ॐ नमः शिवाय ॐ विश्णय नमः

आप ने हम में अँधेरा ढूंढ लिया
आप की भूल आप को मुबारक
आप ने हम में अँधेरा ढूंढ लिया
आप की दृष्टि आप को मुबारक
आप ने अपने अंधेरे में
उजाला ढूंढ लिया
आप की जीत आप को मुबारक
आप ने अपने अंधेरे में
हम को ढूंढ लिया
आप की जीत आप को मुबारक

सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

ॐ नमः शिवाय ॐ विश्नाय नमः

इस पृथ्वी के पश्चात् की कहानी सुनाता हूँ
मैं अपने मश्तिक्ष के आधार का किस्सा सुनाता हूँ
मनुष्य की बलहीनता का साक्षात् उदहारण बताता हूँ
इस भूगोल की नाप-हीन विशालता दिखाता हूँ
तीनो लोकों की सरलता-भरी सौगात दिखाता हूँ
इस पृथ्वी के तिनके-रुपी
जांबाज की
घमंड-भरी लाचारी दिखाता हूँ
कि इस विशाल में
पृथ्वी के
अति-सुक्ष्म रूप का आभार दिलाता हूँ
मनुष्य की शून्य-रुपी प्रस्तुति का एहसास दिलाता हूँ
मगर इक सवाल का उत्तर
आप पर
सोंप कर जाता हूँ
मैं शून्य का अर्थ समझना चाहता हूँ
मैं शून्य की शक्ति पहचानना चाहता हूँ
आपको इस उत्तर के खोज की
प्रक्रिया में
डुबाना चाहता हूँ
आप को इस सवाल का उत्तर
ख़ुद ही समझाना चाहता हूँ

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

ॐ नमः शिवाय ॐ विश्नाय नमः

इस पानी में अगर बहता ही चला जाता मेरा धर
इस शीतलता में अगर खोता ही चला जाता मेरा शीष
और मेरा मन
यूँ ही अगर यह नेत्र कभी खुल न पाते

और यूँ ही अगर आवाज़ इस आनंद में खो जाती
तो शायद में यूँ परेशान न रहता
यह हस्ती, यह बेचेनी न सहता
यह समां यूँ सहमा सहमा सा न रहता
और मैं अपनी पहचान की भूख के लिए
विचलित न रहता
वेह आराम की खोज इतनी लम्बी
क्यों नज़र आती है
मुझे अपनी मंजिल इक बिछारता आकाश
क्यों नज़र आती है
बलहीन को बल की भीख मांगने में
क्यों शर्म आती है
मुझे अपने अस्तित्व की पहचान उतारने में
क्यों शर्म आती है