रविवार, 3 अगस्त 2008

ॐ नमः शिवाय ॐ विश्नाय नमः

मैं आजाद हूँ
आज़ादी का वह हक़, छिना-छिना-सा क्यों नज़र आता है
इतना जकर गया हूँ, कि मानो
शरीर बेरियों से बना हो, ऐसा नज़र आता है
अपनी शक्ति का अनुभव तो नही,
पर आभार ज़रूर है
महसूस करने की देर है, की ऐ, बेरियों, तुम्हारा अंत नज़दीक है

2 टिप्‍पणियां:

डा ’मणि ने कहा…

पहले तो नये ब्लॉग के लिए बहुत बधाई
चलिए अपना परिचय अपने ब्लॉग पे आज पोस्ट किए एक मुक्तक से करा रहा हूँ

भूख के एहसास को शेरो - सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसी के अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जलवे से वाकिफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो "

DR UDAY 'MANI ' KAUSHIK


हिन्दी की उत्कृष्ट कविताओं , ग़ज़लों , आदि के लिए देखें
http://mainsamayhun.blogspot.com

Udan Tashtari ने कहा…

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.

वर्ड वेरिपिकेशन हटा लें तो टिप्पणी करने में सुविधा होगी. बस एक निवेदन है.